Monday, June 20, 2011

विश्व संगीत दिवस पर विशेष

वो जिसने हिन्दी फिल्म संगीत की तस्वीर बदल दी- ए.आर.रहमान

बात 1991 की है। जब तमिल फिल्म इंडस्ट्री के बेहतरीन निर्देशक मणिरत्नम और बेहतरीन संगीतकार इल्लैया राजा की वर्षो पुरानी जोड़ी टूट चुकी थी। मणिरत्नम एक नए और फ्रेश संगीतकार की खोज में थे। हर साल की तरह उस साल भी मणिरत्नम का एक जाने माने अवार्ड फैशन में जाना हुआ। समारोह शुरू होने के पहले वहां पहले से ही कुछ संगीत का कार्यक्रम चल रहा था। मणिरत्नम उस संगीत के धुनों से काफी प्रभावित हुए । उन्होंने उस संगीतकार के कुछ और गानों की फरमाईंश की। धुनों का असर बढ़ता गया। समारोह के बाद मणिरत्नम उस संगीतकार के म्युजिक रिकार्डिंग स्टुडियो भी गए। उस गुमनाम संगीतकार ने अपना एक पुराना गीत मणिरत्नम को सुनाया, जिसे उसने बहुत पहले कावेरी विवाद के सिलसिले में तैयार किया था। मणिरत्नम ने तनिक भी देर न करते हुए अपनी नई फिल्म के लिए इस गीत की मांग कर दी और साथ ही साथ इस नए संगीतकर को साईन भी कर लिया। वह मकबूल फिल्म थी बालचंदर्श कवितालय की रोजा, और वह गाना था तमिजा-तमिजा जो हिंदी में अनुवादित हुआ भारत हमको जान से प्यारा है, और वह अनजाना सा संगीतकार का नाम था अब्दुल रहमान जिसे आज हम ए.आर.रहमान के नाम से जानते हैं। 
संगीत की लोकप्रियता कभी खत्म नहीं हो सकती
 यूं तो सुमधुर संगीत का दौर कभी खत्म नहीं होता और न ही शायरी या कविता कभी फिल्मों से दूर हो सकती है, लेकिन अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि हिन्दी फिल्म संगीत और फिल्मी, शायरी का सुनहरा दौर खत्म होता नजर आ रहा है। बेशक संगीत के सुर दौर के हिसाब से बदलते हैं, लेकिन शायदी के शब्द अपने मायने बदलने लगे यह अफसोस की बात है। संगीत आज भी वक्त के हिसाब से सुमधुर है, नई-नई तकनीकों में डूब, साज, नए-नए अंदाज में पतली आवाजें और नए-नए संगीतकारों की लज्वाब प्रतिभाएं संगीत की दुनिया को समृद्ध बनाती है। हर दौर का संगीत उसके युवाओं और उसके श्रोताओं की मांग से प्रभावित होता है, इसमें कोई दोराय नहीं। उस ‘गोल्डन’ दौर में भी जब फिल्म संगीत उस समय के युवाओं को ध्यान में रखकर बनाया जाता था, तो आज का संगीत भी वही मांग करता है। डिस्को, जैज, रैप, बे्रक न जाने संगीत के कितने दौर और न जाने कितनी शैलियां आई और चली गईं। ये शैलियां बेशक युवाओं को अपने साथ बहा ले जाती है। डिस्को के दौर में संगीत जुदा था, जो उस दौर के युवाओं को मस्ती और जुनून की सीमा तोडक़र आगे ले जाता था, लेकिन गीतों के शब्द तो सीमा में ही रहते थे। मिथुन चक्रवर्ती ने जब कहा था कि ‘आई एम ए डिस्को डांसर’  तो यहां हिन्दी भाषा में सिर्फ अंग्रेेजी शब्द धुले भर थे। उन्होंने किसी तरह की सीमा नहीं तोड़ी थी, जो आधुनिक युवाओं की पहचान थी। परंतु वर्तमान में फिल्म ‘शक्ति’ के गीत ‘इश्क कमीना’ के बाद फिल्म ‘दम मारो दम’ के ‘ऊंचे ऊचा बंदा पोटी पे बैठे नंगा’ से लेकर अब सभी हदें पार करता हुआ फिल्म ‘देहली बेली’ का गीत ‘डीके बोस’ फिल्मों के गिरते स्तर की ओर इशारा करते हैं। ‘शक्ति’ फिल्म में तो दिग्गज शाहरूख और ऐश्वर्या जब गीतकार महबूब के गीत ‘इश्क कमीना’ पर झूमे तो उनके साथ देश भी झूमा। उसके बाद तो ‘कमीना’ गाली नहीं, बल्कि प्यार को संबोधित करने का एक मुहावरा हो गया। और यही फिल्मकारों की सफलता का पैमाना है। ‘दम मारो दम’ के लिए जब जयदीप साहनी को इस बात का ज्ञान हुआ कि ‘ऊंचे से ऊंचा बंदा पोटी पे बैठे नंगा’तो उन्होंने फौरन उसे गीत की शक्ल दे दी। और जिसे फिल्मकार ने हांथोहांथ खरीद लिया और फिर इस गीत ने धूम भी खूब मचाई यानी यह भी गीत सफल रहा। वहीं आमिर खान की पहली फिल्म ‘कयामत से कयामत तक’ के नायक को अपने पिता के अरमानों का अहसास था और इसलिए वह कहता था कि ‘पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा, बेटा हमारा ऐसा काम करेगा..., लेकिन अब उन्ही के निर्माण में बनी और उनके भांजे इमरान खान द्वारा फिल्म ‘देहली बेली’ के नायक को ऐसा लगता है कि उसका पिता उससे कहता है कि ‘तू गलती है मेरी, तुझपे जिंदगानी गिल्टी है मेरी’ इसलिए ऐ मेरे बेटे, डीके बोस तू यहां से भाग’। व्यापारी या दुकानदार अपने उत्पाद को बेचने के लिए बहुत कुछ बातें बना लेता है, उसे तरह-तरह से बेचने की कोशिश करता है। उसे पता होता है कि वह क्या बेच रहा है और उसे यह भी पता होता है कि जो उत्पाद वह बाजार में बेचने जा रहा है उसका विरोध होगा और जरूर होगा, और उसी विरोध की वहज से उसका उत्पाद बाजार में हाथोहांथ बिकेगा, क्योंकि उसे यह भी पता होता है कि उसके उत्पाद को खरीदने वाले लोग बाजार में मौजूद हैं। संगीत का स्तर गिरा है या बढ़ा है ये तो कहना बहुत मुसकिल होगा पर हां इतना तो पता चलता ही है कि समय के साथ-साथ संगीत भी बदलता है।
विश्व संगीत दिवस पर एक नजर.....
कहा जाता है कि संगीत इंशान की आत्मा होती है और संगीत शांती की प्रतीक भी होती है। विश्व में सदा ही शांति बरकरार रखने के लिए ही  फ्रांस में पहली बार 21 जून सन् 1982 में प्रथम विश्व संगीत दिवस मनाई गई इससे पूर्व अमेरिका के एक संगीतकार योएल कोहेन ने 1976 में इस दिवस को मनाने की बात की थी। विश्व संगीत दिवस कुल 17 देशों में ही मनाया जाता है (भारत, आस्टे्रलिया, बेल्जियम, ब्रिटेन, लक्समवर्ग, जर्मनी, स्विट्जरलैंड, कोस्टारीका, इजाराइल, चीन, लेबनाम, मलेसिया, मोरक्को, पाकिस्तान, फिलीङ्क्षपस, रोमानिया और कोलम्बिया)  विश्व संगीत दिवस के अलावा इसे सगीत समारोह के रूप में भी जाना जाता है। यह एक तरह से संगीत त्यौहार है जिसे सारे देश में अलग-अलग तरीकों से मनाया जाता है। भारत में इस अवसर पर कहीं संगीत प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है तो कहीं संगीत से भरा कार्यक्रम की प्रस्तुति की जाती है। विश्व संगीत दिवस का उद्देश्य लोगों को संगीत के प्रति जागरूक करना है ताकि लोगों का विश्वास संगीत से न उठे।

तुझे सलाम
1. पल-पल दिल के पास है -किशोर कुमार
किशोर कुमार अपने गाने दिल और दिमाग दोनों से ही गाते थे। वे हर तरह के गीत गा लेते थे क्योंकि उन्हें पता था कि कौन सा गाना किस अंदाज में गाना है। आज भी उनकी सुनहरी आवाज लाखों संगीत के दिवानों के दिल में बसी हुई है। और उनका जादू हमारे दिलों दिमाग पर छाया हुआ है। पल-पल दिल के पास जैसे अनेकों गाने को आज के पीढ़ी के युवा भी बहुत पंसद है । किशोर कुमार एक सदाबहार गायक ये जिन्हें भूल जाना नामुम्किन है।
2. गोल्डन दौर के हिरो गायक थे मुकेश
फिल्म सत्यम शिवम सुंदरम के कर्णप्रिय गीत चंचल शीतल निर्मल कोमल जैसे कई गीत है जिन्हें गायक मुकेश ने अपनी आवाज तो दी, लेकिन उन्हें पर्दे पर उतरता नहीं देख पाए और पहले ही इस संसार को अलविदा कह गए। केवल 56 वर्ष की उम्र में इस दुनिया से विदा हुए मुकेश अपनी आवाज से सजे कई गीतों को फिल्मी पर्दे पर उतरते हुए नहीं देख पाए थे। हिन्दी फिल्म जगत में गायक मुकेश को उनकी अलग तरह की आवाज के लिए हमेशा याद किया जाता है और उनके गीत आज भी लोगों को सुकून देते हैं। मुकेश के निधन के बाद भी कई साल तक उनके गीत फिल्मों में जादू बिखेरते रहे और ये गीत आज तक संगीत प्रेमियों को सुकून पहुंचा रहें हैं।
3. लता जी का कोई मुकाबला नहीं
बतौर गायिका लता जी का कोई मुकाबला नहीं है। अपने देश के अलावा विदेशों में भी लता के गानों की धूम छायी रही है। अपने देश में लता को जहां भारत रत्न से सम्मानित किया गया वहीं विदेशों में भी उनकी बढ़ती लोकप्रियता को देखकर फ्रांस सरकार ने उन्हें फ्रंास के सर्वोच्च नागरिक ‘ऑफिसर ऑफ द लीजन ऑफ आनर’ से सम्मानित किया। सम्मान अब लता के लिए पर्याय बन चुके हैं। उनके व्यक्तित्व व जीवन शैली एवं गायकी के प्रति उनके समर्पण को देखकर कहा जा सकता है कि लता के जैसा न कोई था और कोई है। लता जी आज 80 वर्ष की अवस्था पर पहुंच गयी हैं  उसके बाद भी किसी में हिम्मत नहीं जो उनका मुकाबला कर सके। अपनी गायकी और अपनी विचारों से भी वह वाकई भारत रत्न हैं।
4. जब कभी भी सुनोगे गीत रफी की
जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे .... संग-संग तुम भी गुनगुनाओगे... रफी की हिट गानों में एक गाना यह भी था और सच ही कहा थ उन्होंने ‘तुम मुझे यूं भूना न पाओगे’। आज हम हमेशा उनकी गीत के जरिये उन्हें याद करते रहते हैं। जिस दौर में तकनीक नहीं थी ज्यादा आवाजें नहीं थी, गायक को अच्छी नजरों, से नहीं देखा जाता था, उस दौर में रफी ने गायन का दामन थामा था, लेकिन आज के दौर में जब सब कुछ है तब भी गाने वाले रफी की आवाज को छू भी नहीं पाते हैं।



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